Saturday, July 29, 2017

कविता : अर्पण

~डा. रमेश खनाल~

तुम्हारे पास रहने कि
मेरी चाहना
तुम्हारे चरणों के नीचे बैठने कि
मेरी तमन्ना 
तुम्हारे ही "माया मेट्रिक्स" के बदौलत
पता नहीं कब तक पुरी नही होगी
और मैं बिन पानी के मछली कि तरह तरसता रहूँ, छटपटाता रहूँ।
एक नियो वेदान्तीन जैसा मैं
तुम्हे अनुभूत करके    
अपना अस्तित्व अर्पित करने कि बजाय
अभि भी शाश्त्रों के पन्नो पर
कि वा आधुनिक यूटुब के भिडियो मे
ढुंढ रहा हूँ, देख रहा हूँ, सुन रहा हूँ
हे मेरे भगवन
मुझे माफ करो
मेरे उपर दया करो।
शंकराचार्यका गुरु अष्टकम् कि महत्ता
शाब्दिक अर्थोंमे सीमित करने वाला मैं
अपना स्थूल शरीर
और इन्द्रियों के मोह जालमें फसता हुआ
अभि तक तुम्हारी आवाज
और तुम्हारे आवाहन को
थोडी दूर से ही देख रहा हूँ
हे मेरे देव, करुणानिधान
मेरी कृपणता पर भी
तुम्हारी अनन्य कृपा और प्रेम
बना रहे, बना रहे।
भगवान श्री कृष्णको जानते हुए भी
पता नहीं अर्जुन के पैर
कितनी बार लड़खडा गए
और भिष्म, द्रोण, कर्ण, और नजाने कितने वीर तो
अपनी अपनी विबषता जताते हुए
दुर्योधन कि पापों के संरक्षण मे
और धर्म के खिलाफ लड़ते हुए
खुद को ही आत्महत्या कि ओर ले गए
और मैं एक अगोचर
इस भौतिक और इहलौकिक
"संसारोयमतिव: विचित्र:" का छोटा सा पात्र
हृदय से, अपने अन्तस्करण से
गुरुस्तोत्रम् गाने कि कोशिस मे
अनायास निकलते आँशु
तुम्हारे आशिर्वचन कि लालसा मे
“न जानामी योगं, जपं नैव पूजां” की तरह
एक भेट, एक पुष्प स्वरुप
तुम्हारे चरणों पर अर्पण कर रहा हूँ
हे मेरे ईश, दयानिधान
इसे स्वीकार करो, स्वीकार करो। 

 
- डा. रमेश खनाल, ल्याङ्गकास्टर, पेन्सिलभेनिया।

(जुलाई २९, २०१७ का दिन आबिष्कार-अप्सराको - भारती निवासमा भएको "१७ औं कोठे साहित्य कार्यक्रम"मा फोनको माध्यमबाट वाचन गरिएको । )

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